शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

(प्रेम) पत्र - लेखन और (प्रेम) पत्र - पठन के (वे) दिन c/o राग दरबारी

तब रंगीन लगती थीं श्वेत श्याम तस्वीरें
और किताबों के बीच चुपके से रखे गए सूखे फूल
बोसीदा कमरे में भर में भर देते थे सुगन्ध।

रात के दो के आसपास का समय था।वोल्वो तेज रफ्तार से भाग रही थी. बस में थोड़े-थोड़े अंतराल पर एक ही गाना बार-बार बज रहा था-'चिठ्ठी आई है ,वतन से चिठ्ठी आई है'.लग रहा था कि बस के ड्राइवर और स्टाफ को घर की याद आ रही होगी. मैं ऐसा शायद  इसलिए भी अनुमान कर रहा  क्योंकि स्वयं घर से दूर था - हजारों मील, लेकिन घर की याद बिना किसी टिकट भाड़े नजदीक और नजदीक चली आ रही थी. मुझसे आगे की सीट पर बैठा युवक अपनी साथी को बता रहा था-'नाम फिल्म इसी गाने से पंकज उधास का नाम फेमस हुआ था'.शुक्र है कि युवती ने 'कौन पंकज, कौन उधास?' नहीं पूछा.मुझे याद आया कि एक सहकर्मी ने एक दिन बताया था कि उन दिनों जब यह गाना खूब चला था तब उन्होंने इसी से 'प्रेरणा'लेकर गणित में एम.एस-सी.करने के तत्काल बाद एक विदेशी स्कूल की नौकरी के बदले अपने कस्बेनुमा शहर की मास्टरी को इसलिए  तरजीह दी थी कि 'उमर बहुत है छोटी,अपने घर में भी है रोटी'.हालांकि बाद में,थोड़ी तरलता आने पर उन्होंने बेहद मीठे और मुलायम अंदाज में यह भी खुलासा किया था कि इस निर्णय के केन्द्र में 'प्रेम' भी (शायद प्रेम ही!) एक मजबूत कारण या आधार था.और यह भी कि उन दिनों वह रोजाना बिला नागा 'उसे' एक पत्र लिखा करते थे - प्रेम पत्र.

वह कोई दूसरा समय था
इतिहास का एक बनता हुई कालखंड
समय की खराद पर
उसी में ढलना था हम सबका जीवन।

आजकल पत्र कौन लिखता है? सरकारी,व्यव्सायी,नौकरी-चाकरी के आवेदन-बुलावा आदि के अतिरिक्त पारिवारिक-सामाजिक पत्र हमारी जिंदगी के हाशिए से भी सरक गए लगते है.क्या ऐसा संचार के वैकल्पिक संसाधनों-साधनों की सहज - सरल - सस्ती उपलब्धता के कारण हुआ है? या कि समय का अभाव,पारिवारिक-सामाजिक संरचना के तंतुजाल में दरकाव,पेपरलेस कम्युनिकेशन की ओर अग्रगामिता आदि-इत्यादि चीजें इसकी वजहें हैं? बहरहाल, इस गुरु-गंभीर विषय पर विमर्श की विचार-वीथिका में वरिष्ठ-गरिष्ठ विद्वानों को विचरण करने का सुअवसर प्रदान करते हुए मैं तो बस यही कहना चाह रहा हूं कि कहां गए वो दिन? वो पत्र-लेखन और पत्र-पठन के दिन अब तो पत्र-लेखन कला स्कूली पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह-सी गई है।

दुनिया बदलती जा रही है पल - प्रतिपल।
तमाम जतन और जुगत के बावजूद
हर ओर सतत जारी है कुरूपताओं का कारोबार
बढ़ता ही  जा रहा है कूड़ा कबाड़
फिर भी मन  का कोई कोई कोना 
खोजता है एकान्त

कुछ लोग कहेंगे कि ई मेल ,एसएमएस,इंस्टैन्ट मैसेजिंग आदि पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है. हां,ये भी पत्र के विकल्प रूप - प्रारूप हैं और इनके जरिए व्यक्त की जाने वाली संवेदना तथा उसके शिल्प को मैं नकार भी नहीं रहा हूं किन्तु यहां मेरी मुराद कागज पर लिखे जाने वाले उस पत्र से है जिससे तमाम भाषाओं का विपुल साहित्य भरा पड़ा है,जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था.

अब भी मँडराती हैं
ढेर सारी कटी पतंगे
तलाशती हुईं अपनी डोरियाँ
अपनी लटाइयाँ
और अपने - अपने हिस्से का आकाश।

श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी'(१९६८) मेरी प्रिय पुस्तकों की सूची में काफी ऊपर है.पिछले  दिल्ली  विश्व पुस्तक मेले में राजकमल / राधाकृष्ण/ लोकभारती प्रकाशन के स्टाल पर इसकी जबरदस्त डिमांड मैंने खुद देखी थी. मुझे बार-बार इस उपन्यास से गुजरना अच्छा लगता है.अपने समय और समाज नब्ज व नियति को समझने के लिए यह उपन्यास मेरे लिए एक उम्दा संदर्भ ग्रंथ का काम भी करता रहा है.अपनी इसी प्रिय पुस्तक में शामिल एक पत्र (या प्रेम पत्र!)लेखक के प्रति आदर और प्रकाशक के प्रति आभार व्यक्त करते हुए 'कर्मनाशा' के पाठकों - प्रेमियों  के साथ इस उम्मीद के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं कि इसे इतिहास के बहीखाते में दर्ज होने की तरफ अग्रसर पत्र-लेखन कला एवं (अथवा) विज्ञान का एक उदाहरण मात्र माना जाए- कंटेंट, रेफरेंस और जेंडर से परे....


'राग दरबारी' का (प्रेम ) पत्र

ओ सजना ,बेदर्दी बालमा,

तुमको मेरा मन याद करता है.पर चॉंद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर.वह बेचारा दूर से देखे करे न कोई शोर.तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मन्दिर ,तुम्हीं मेरी पूजा ,तुम्ही देवता हो,तुम्हीं देवता हो.याद में तेरी जाग-जाग के हम रात-भर करवटें बदलते हैं.

अब तो मेरी हालत यह हो गई है कि सहा भी न जाए,रहा भी न जाए.देखो न मेरा दिल मचल गया,तुम्हें देखा और बदल गया.और तुम हो कि कभी उड़ जाए,कभी मुड़ जए भेद जिया का खोले ना.मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको प्यार छिपाने की बुरी आदत है.कहीं दीप जले कहीं दिल,जरा देख तो आकर परवाने.

तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं.ये सुलगते हुए जज्बात किसे पेश करें.मुहब्बत लुटाने को जी चाहता है.पर मेरा नादान बालमा न जाने जी की बात.इसलिए उस दिन मैं तुमसे मिलने आई थी .पिय़ा- मिलन को जाना.अंधेरी रात.मेरी चॉदनी बिछुड़ गई,मेरे घर में पड़ा अंधियारा था.मैं तुमसे यही कहना चाहती थी,मुझे तुमसे कुछ न चाहिए .बस, अहसान तेरा होगा मुझ परमुझे पलकों की छांव में रहने दो.पर जमाने का दस्तूर है ये पुराना,किसी को गिराना किसी को मिटाना.मैं तुम्हारी छत पर पहुंची पर वहां तुम्हारे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था.मैं लाज के मारे मर गई.बेबस लौट आई.ऑधियों ,मुझ पर हंसो,मेरी मुहब्बत पर हंसो.

मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो.तुम कब तक तड़पाओगे? तड़पा लो,हम तड़प-तडप कर भी तुम्हारे गीत गाएंगे.तुमसे जल्दी मिलना है.क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मन्दिर सूना है.अकेले हैं,चले आओ जहां हो तुम.लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो.यही है तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए,हाय़.हम आस लगाए बैठे हैं.देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना।

तुम्हारी याद में,
कोई एक पागल।

6 टिप्‍पणियां:

उत्‍तमराव क्षीरसागर ने कहा…

सुंदर....रोचक, गंभीर व महत्‍वपूर्ण पोस्‍ट...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

रागदरबारी का प्रवाह सदा ही बहा ले जाता है। चिंतनशील पोस्ट।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी पोस्ट ने सभी पुरानी स्मृतियाँ ताजा कर दीं!
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टीम इण्डिया ने 28 साल बाद क्रिकेट विश्व कप जीतनें का सपना साकार किया है।
एक प्रबुद्ध पाठक के नाते आपको, समस्त भारतवासियों और भारतीय क्रिकेट टीम को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।

abhi ने कहा…

राग दरबारी नहीं पढ़ा.
पोस्ट ने पुरानी चिट्ठियों की याद दिला दी..
कुछ दो साल पहले तक मैं चिट्ठियां लिखते रहता था...अब आदत नहीं रही :(

आकाश सिंह ने कहा…

प्रियवर
आपने तो पुरानी यादें ताजा कर दिया
सधन्यवाद |
अच्छी पोस्ट है |

KK Yadav ने कहा…

सिद्धेश्वर जी,
आपकी यह चिट्ठी जनसत्ता में पढ़ी और फिर आपके ब्लॉग पर पहुंचा. चिट्ठियों की बात ही अलग है. टेक्नालाजी कहाँ की कहाँ पहुँच गई, पर अभी भी उन प्यार भरे चिट्ठियों की बात होते ही मन में सिहरन सी उठने लगती है. आपकी यह अनुपम पोस्ट हमने 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग पर भी साभार प्रकाशित की है.
http://dakbabu.blogspot.com/