शनिवार, 4 सितंबर 2010

जैसे कि कोई सजल सरिता समुद्र की विशालता में हो जाती है विलीन


रानी जयचंद्रन मलयालम और अंग्रेजी की युवा कवि हैं जो केरल के एक छोटे से कस्बे वर्कला  में रहती हैं। पिछले बरस उनकी अंग्रेजी कविताओं से परिचय हुआ था और इसके माध्यम बने थे बड़े भाई शिवाजी कुशवाहा जो  आजकल रायपुर में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। रानी जी ने बड़ी उदारता से अपनी किताब 'ईकोज आफ़ साईलेंस' भिजवाई और उसमे संकलित कविताओं को पढ़कर लगा कि समकालीन भारतीय अंग्रेजी कविता, मैं जितनी भी, जैसी भी  पढ़ पाता हूँ, उसमें यह एक नया और अलग - सा स्वर है जिसे हिन्दी कविता के पाठकों और प्रेमियों से अवश्य परिचित कराया जाना चाहिए। रानी जयचंद्रन की इस कविता - पुस्तक में कुल 22 कवितायें संकलित हैं जो कवितायें समकालीन भारतीय अंग्रेजी कविता के उस रूप - स्वरूप से परिचित कराती हैं जो अपनी जड़ों से गहराई तक संबद्ध है. ये कवितायें अपने निकट की प्रकृति तथा परिवेश से मात्र रागात्मकता और रुमानियत ही ग्रहण नही करतीं बल्कि जीवन - जगत की चुनौतियों व संघर्षों से टकराने के लिए भरपूर ऊर्जा और उत्साह भी हासिल करती दिखाई देती हैं और ऐसा करते हुए वे न तो सपाटबयानी पर उतरती नजर आती हैं और न ही कोई वक्तव्य या सूत्रवाक्य बन कर रह जाती हैं. लयात्मकता , सीधी सरल भाषा , आत्मपरक कहन शैली और लाउड हो जाने से बचने का सचेत आत्म - अनुशासन इस संग्रह की कविताओं की कुछ अन्य खूबियां हैं जो इसे रेखांकित करने योग्य बनाती हैं.  तो इस तरह शुरू हुआ रानी जी की कविताओं के चयन और अनुवाद का क्रम जो अब भी छिटपुट तरीके से चल ही रहा है। इस सिलसिले की शुरूआत में जब एकाध जगह अटकना हुआ तो स्वयं कवि ने आगे बढ़कर मदद की। इस मोड़ पर पता चला कि कवि को कामचलाऊ हिन्दी ठीक से नहीं आती, हालाँकि सामान्य हिन्दी वार्तालाप वे समझ - बूझ लेती हैं  और अनुवादक को मलयालम की बिल्कुल जानकारी नहीं। हमारे संवाद के माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा का एक पुल है जिस पर कविता के पाँवों के चमकीले निशान हैं जिन्हें देखते - पहचानते- परखते भाषा के अवरोध को परे करने का उपाय किया गया  है।

इस बात की बहुत खुशी है रानी जयचंद्रन  जी ने मेरे द्वारा किए गए अनुवादों को मलयालम - अंग्रेजी के जरिए अपने संस्थान के एक हिन्दी जानने वाले साथी के माध्यम से समझा है और सराहना की है । उनकी कविताओं के   अनुवाद 'कबाड़ख़ाना' पर आए हैं  , पसंद किए गए थे  और एक दिन पता चला कि इंदौर वासी हमारे मित्र मशहूर युवा चित्रकार रवीन्द्र व्यास ने 'जादुई प्यार' शीर्षक कविता से प्रेरित होकर एक पेंटिंग बनाई है और इस कविता में / कविता के जरिए प्रेम के झीने - गझिन, दृश्य - अदृश्य तंतुओं की तलाश करते हुए एक बहुत ही सुन्दर आलेख 'वेब दुनिया' के पन्नों पर लिखा है। यह सब मेरे लिए बहुत अद्भुत और अनोखा -सा अनुभव है क्योंकि मैं तो बस हिन्दी की साहित्यिक दुनिया की हलचलों - गतिविधियों- उठापटक से बहुत दूर चुपचाप हिमालय की तलहटी में बसे एक छोटे - से गाँव के अपने घोंसले में रहकर एक साधारण - सा जीवन जीते हुए, नून - तेल - लकड़ी की चिन्ताओं व जीवन के राग - विराग - खटराग के बीच समय निकाल कर  अपनी पसंद की कुछ चीजों से बतियाते हुए इक्का - दुक्का कागज काले करता रहता हूँ। बीती शाम आज की पीढी़ के बहुत ही समर्थ व संभावनाशील कवि मित्र केशव तिवारी का फोन आया और उन्होंने रानी जी कविताओं के मेरे अनुवादों की तारीफ की । लगभग दो सप्ताह पहले इन्हीं अनुवादों का जिक्र इस साल के प्रतिष्ठित 'सूत्र सम्मान' से सम्मानित किए गए कवि - मित्र महेश पुनेठा ने भी किया था। यह जानकर अच्छा लगा कि दो अच्छे लोग मेरे काम को अच्छा जैसा कुछ  कह रहे हैं नहीं तो अपनी हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में तो अनुवादक नामक जीव तो प्राय: नेपथ्य में ही रह जाता है और अक्सर उसका उल्लेख आधे - अधूरा शब्द 'अनु०' लिखकर निपटा जैसा दिया जाता है।

आज की डाक में 'पांडुलिपि' पत्रिका का प्रवेशांक आया है जिसमें मेरे द्वारा अनूदित रानी जयचंद्रन की तीन कवितायें प्रकाशित हुई हैं। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान , रायपुर ,छतीसगढ़ द्वारा प्रकाशित इस त्रैमासिक पत्रिका ( प्रमुख संपादक ; अशोक सिंघई / कार्यकारी संपादक ; जयप्रकाश मानस / पता : 'सिंघई विला' , ७-बी, सड़क : २०, सेक्टर : ५, भिलाईनगर , छतीसगढ़ , पिन : ४९०००६, भरत/ ई मेल : pandulipipatrika@gmail.com) का प्रवेशांक वृहदाकार है पौने चार सौ पृष्ठों का और मूल्य है २५ रुपये मात्र। क्या ही अजीब बात है कि पच्चीस रुपये की यह किताब ३५ रुपये के डाकखर्च पर मेरे ठिकाने तक पहुँची है! इस अंक को अभी तो बस उलट - पुलट कर देख पाया हूँ । धीरे- धीरे इसे पढ़ा जाएगा और इस पर कुछ लिखा भी जाएगा। इसका आवरण आकर्षक है - गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की पेंटिंग से सुसज्जित। 'पांडुलिपि' का उल्लेख अभी केवल इसलिए कि इसमें रानी जयचंद्रन की कविताओं के मेरे तीन अनुवाद प्रकाशित हुए है जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। हिन्दी कविता के पाठकों और प्रेमियों के लिए एक सूचना और हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में अपने लिखे - पढ़े को साझा करने के उपक्रम में आज और अभी रानी जयचंद्रन की तीन कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ :













रानी जयचंद्रन की तीन कवितायें                       
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
             
०१-अनंत जीवन 
                                                
घाटी की ढलानों पर                                                 
ऐश्वर्य के मुकुट की तरह       
फिर खिला है कुरिन्जी*
बारह बरस के बाद.
नर्म - नाजुक फुहार और
मंद - मंथर हवा के सानिध्य में
डोल रही हैं
जामुनी- नीले रंग के फूल की चपल आँखें.

खूब गहरे तक धँसकर
पंखुड़ियों को चूमती हैं सूरज की किरणें
और उनमें भर देती हैं सुर्ख रंगत की सजावट .
चंद्रमा की रोशनी से नहाई हुई रात में
फैलता ही जा रहा है
ढलानों पर धीर धरी धरती का खिंचाव.

प्रेम की ऊष्मा से छलछलाती हवा
फुसफुसाहटों में करती आ रही है कोई बात
ठगी ठिठकी गंभीर हो ठहर जाती है
देर तक इस जगह.
और शान्त तैरता हुआ बादल
गाने लगता है
एक अकेले दिवस का
कभी न खत्म होने वाला गौरवगान .

बारह बरस के बाद.
फिर खिला है कुरिन्जी
मंद - मंथर हवा के सानिध्य में
डोल रही हैं
जामुनी - नीले रंग के फूल की चपल आँखें.

०२- जादुई प्यार

अस्ताचल के आलिंगन में आबद्ध
डूबता सूरज
समुद्र से कर रहा है प्यार
इस सौन्दर्य के वशीकरण में बँधकर
देर तक खड़ी रह जाती हूँ मैं
और करती हूँ इस अद्भुत मिलन का साक्षात्कार.

प्यार की प्रतिज्ञाओं और उम्मीदों से भरी
भीनी हवा के जादुई स्पर्श से
अभिभूत और आनंदित मैं
व्यतीत करती हूँ अपना ज्यादातर वक्त
यहीं इसी जगह
और मुक्त हो देखती हूँ
जल में काँपते चाँद को बारम्बार.

इस अद्भुत मिलन के दृश्य से
भीगकर भारी हुई पृथ्वी
खड़ी रह गई है तृप्त -विभोर.
और चाँदनी की रश्मियों से चित्रित
बनी - अधबनी छायायें
फैलती ही जाती हैं वसुन्धरा के चित्रपट पर
यहाँ वहाँ हर ओर.

०३- एक दिव्य जलयात्रा

जब प्रसन्नता से परिपूर्ण मैं
अग्रसर हूँ खेती हुई एक नाव
तो सुनाई दे रही है एक लयबद्ध ताल
क्या यह प्रवाह से भरे जल की ध्वनि है ?
अथवा आवाज है मेरे भीतर हिलोरें मारते आह्लाद की ?
क्या यह स्पंदन है मेरे हृदय का ?
या फिर
कोई आलाप है हाँफते हुए मन - मस्तिष्क का ?

मन्द शीतल हवा
जो संदेशवाहि्का है
पुष्पित होते चंपक की भीनी सुवास की
वही इस क्षण उर्ध्वमान किए जा रही है अंतरात्मा को
स्वर्गिक ऊँचाइयों की ओर
और जिसने मेरे मस्तक पर सजा दिया है
सुबह - सुबह की धुन्ध का दिपदिपाता मुकुट।

घास चरते मृग , चह - चह करते विहग
गीत गाती कोकिल , प्रस्फुटित होते पुष्प
नर्म - नाजुक तृण , छाया बाँटने वाले वॄक्ष
कुमुद की पंखुड़ियों पर जमे हुए तुहिन कण..
समूचे दृश्य को बना रहे हैं देवताओं का उपवन - देवोद्यान
जिसमें अवतरित हो रहा है
स्वर्गिक आभा का सहज सतत समुच्चय।

कोहरे में स्नात सघन वन प्रान्तर से
झाँक रहे हैं सुनहले किरणों के पुंज
रुपहली ढलानों पर फिसल रहा है रश्मित आलोक
जिसकी छुवन से पिघल रही है जमी हुई ओस
और छितरा रही है छोटी- छोटी बूँदें
जो समीरण के वेग में प्रशान्ति भर कर
इस सुन्दर दृश्य को बनाए जा रही हैं एक रहस्यपूर्ण संसार।

मैं सुन रही हूँ...सुन रही हूँ
मन्द हवा की आहट - सरसराहट
बहुत स्पष्ट है
अपनी ही लहरों से भरी यह लोरी
जो मेरे अशक्त अंतस में आह्लाद कर
उसे हिरन की तरह
चौकड़ियाँ भरने को प्रेरित कर रही है लगातार।

क्या मैं लम्बे समय तक खेती रह सकूँगी यह नाव ?
क्या मैं अकेले ही देखती रहूँगी
प्रकृति का यह अनुपम उपहार
यह दृश्य
जिसमें समाहित हुआ है दिव्यता का दिव्य भाव ?

अब जबकि बिन माँझी की मेरी नौका
सौन्दर्य से भरे तट तक पहुँचने से है बस थोड़ी ही दूर
देखती हूँ कि नाविक तो बैठा है बिल्कुल पास
अपनी थपकियों से मेरी व्याकुलता का शमन करता
धीरे - धीरे पतवार चलाता
जैसे रची जा रही हो कोई शोभाकृति चुपचाप.
मेरे ह्रूदयस्थल में अंकुरित होने लग गई हैं
कोमल भावनायें अकस्मात
और पंखों को फैलाकर गंतव्य की ओर भरने लगी हैं उड़ान
मैं स्वयं को समर्पित कर देती हूँ
जैसे कि कोई सजल सरिता
समुद्र की विशालता में हो जाती है विलीन।

प्रेम की वाणी से पूरित चुप्पी और एकान्त ने
प्रार्थनाओं से भर दिया हैं मेरे अंतर्मन को
इस उदात्त ऊष:काल में बह जाने दो मुझे
हो जाने दो मग्न मुग्ध मुदित बेपरवाह।

कोई विघ्न न डाले
वरदान से आप्लावित इस मन:लोक में
कोई नष्ट न कर दे
इस स्वर्गिक संसार को
प्रेम के शाश्वत प्रतीक
कृष्ण की तरह और राधा की तरह
अनश्वरता से सहेज लेने दो इस अद्भुत जलयात्रा को
जो मुझे बनाए जा रही है
तुम्हारा एक सच्चा साथी और एक प्रसन्नचित्त दोस्त।

*



* कुरिन्जी : दक्षिण भारत की नीलगिरि पर्वतमाला और केरल के कुछ इलाकों में पाया जाने वाला फूल है जो बारह वर्ष में एक बार खिलता है और विस्तृत पहाड़ी ढ़लानों को स्वर्गिक आभा से भर देता है. 'नीलगिरि' नामकरण वस्तुत: इस जामुनी - नीले रंग के फूल की ही महिमा का ही मूर्त रूप है. कुरिन्जी दक्षिण भारत के साहित्य , चित्रकला , संगीत, सिनेमा और लोक जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है.

4 टिप्‍पणियां:

कडुवासच ने कहा…

... behatreen post !!!

Jandunia ने कहा…

nice

अजेय ने कहा…

गम्भीर पाठ की माँग करती कविता. इसे फिर कभी पढ़ूँगा.

शरद कोकास ने कहा…

सिद्धेश्वर भाई , बहुत कुछ तो आपने ही कह दिया और मेरे कवि मित्रों ने जो मैं कहना चाहता था . मैं तो आपके अनुवाद पढते हुए इस कदर गुम हो जाता हूँ कि बर्तोल ब्रेख़्त साहब की हिदायत मुझे याद ही नहीं रहती और मुझे लगता है कि इस तरह डूबकर किया हुआ अनुवाद ही रचना के साथ न्याय कर सकता है . बहुत सतही बात कर रहा हूँ मैं लेकिन एक कवि इतना ही कह सकता है . आप कहीं भी रहें लेकिन छत्तीसगढ के लिये अब आप अपरिचित नहीं है यह बात तो मैं पाँडुलिपि का यह अंक आने के बाद तो कह ही सकता हूँ > जयप्रकाश जी और अशोक सिँघई जी से आये दिन मुलाकात होती है और हम लोग आपको याद करते हैं . इन कविताओं के बेहतरीन अनुवाद के लिये बधाई सहित ..