रविवार, 28 सितंबर 2008

लता जी : शोला सा लपक जाए है आवाज तो देखो

आज अपनी दीदी लता मंगेशकर का जन्मदिन है.
बधाई !
संगीत का यह आठवां सुर आज अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है.
यह स्वर सरिता ऐसे ही बहती रहेगी-अविराम,अविरल।अनवरत...अनंत तक....

आइये सुनते है उनके गाए दो गीत जो मुझे बहुत भाते हैं -

१- काहें बंसुरिया बजवले...(फ़िल्म : हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो)




२-अंदाज मेरा मस्ताना...(फ़िल्म : दिल अपना और प्रीत पराई)

शनिवार, 27 सितंबर 2008

पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....


आज सुबह पता नहीं कैसे इस गाने की याद आ गई. शायद रात में कोई सपना देखा होगा. पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के गीतों को सुनते- सुनते कब गदहपचीसी पार हो गई और दुनियादारी से साबका-सामना हुआ पता ही नहीं चला-यह कहना झूठ बोलना होगा-बिल्कुल सफ़ेद झूठ. सबकुछ याद है -एक सिरे से दूसरे सिरे तक. यह याद है अपनी स्कूली पढ़ाई के दिनों तक गांव में न तो सड़क थी और बिजली.हां यह जरूर था कि अपने 'दुआर' पर एक सार्वजनिक पुस्तकालय था जिसका नाम 'आदर्श पुस्तकालय' था जिसकी काठ की आलमारियों में खूब सारी किताबें थी, एक रैक पुरानी पत्रिकाओं का था तथा बनारस से निकलने वाला अखबार 'आज' नियमित आया करता था.वह अपना बचपन,अपनी किशोरावस्था थी जहां किताबें ही नहीं कोई भी कागज 'विद्या माई' था और आपस में हमउम्र लड़के कसम खाने की नौबत आने पर अक्सर 'गऊ कीरे' आदि-इत्यादि कसमें खाने के स्थान पर 'बिदिया माई कीरे' यानि विद्या माता की ही कसम खाते थे. न रही हो अपने बचपन के गांव में बिजली की रोशनी और लालटेन-ढ़िबरी की मलगजी रोशनी ही नसीब में रही हो परंतु यह कहने में फ़ख्र होता है कि अपनी आसपास किताबों की दुनिया थी जहां छापाखाने से छपे अक्षर सीधे दिल-दिमाग पर छपते थे अभ्यास पुस्तिका के पन्नों पर नहीं. लेकिन मैं यह सब क्यों पता रहा हूं ? अतीत का उत्खनन करके आखिर क्या कहना चाह रहा हूं ? मैं तो शारदा सिन्हा जी के गाने की बात कर रहा था.

शारदा जी के गीत जब पहली बार सुने थे तब लगा था कि यह तो अपना खलिस-खांटी उच्चारण है,खास अपनी मिट्टी का सोंधापन.भोजपुरी फ़िल्मों के गीतों में भी यह तत्व कम महसूस होता था.उस समय बिरहा के दंगल और लवंडा नाच नुमा गाने भी आसपास बजते थे लेकिन उन्हें सुनना बिगड़ने और आवारा होने का अलिखित प्रमाणपत्र माना जाता था. इसी दौर में शारदा जी ने अपने स्वर से सम्मोहित किया और हिया को सुखद बयार मिली.संगीत के पारखी लोगों के लिए मेरे ये उद्गार बेहद बचकाने व गलदश्रु भावुकता वाले लग सकते हैं किन्तु मैं तो अपने उन दिनों की बाद कर रहा हूं जब भावुकता ही पूंजी थी. आज भोजपुरी संगीत जो गति और गत्त है उस पर फिर कभी..

शारदा जी को आजकल सुनते हुए जी कुछ उदास हो जाता है.हालांकि उनके अधिकतर गीत खुशी और रागात्मकता के है फ़िर भी इस चंचल- पागल मन के हिरणशावक का क्या कीजे? अगर मुझे आजकल शारदा जी के गीतों को सुनते हुए उफ़नाई कोसी और उसके जल की विकरालता बाढ़ के रूप में दीखने लगती है तो मैं क्या करूं ? और हां, यह मैं पूरे होशोहवास में कह रहा हूं कि ऐसा सिर्फ़ सपने में ही नहीं होता...

चलिए,छोड़िए भी अगर आप इस एकालाप को पढ़कर यहां तक पहुंच ही गये हैं तो और आपके कीमती वक्त में से कुछ चुरा लिया गया है तो इस नाचीज को क्षमा करते हुए सुन लेते हैं पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के स्वर मे यह गीत- पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....



पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....

आज सुबह पता नहीं कैसे इस गाने की याद आ गई. शायद रात में कोई सपना देखा होगा. पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के गीतों को सुनते- सुनते कब गदहपचीसी पार हो गई और दुनियादारी से साबका-सामना हुआ पता ही नहीं चला-यह कहना झूठ बोलना होगा-बिल्कुल सफ़ेद झूठ. सबकुछ याद है -एक सिरे से दूसरे सिरे तक. यह याद है अपनी स्कूली पढ़ाई के दिनों तक गांव में न तो सड़क थी और बिजली.हां यह जरूर था कि अपने 'दुआर' पर एक सार्वजनिक पुस्तकालय था जिसका नाम 'आदर्श पुस्तकालय' था जिसकी काठ की आलमारियों में खूब सारी किताबें थी, एक रैक पुरानी पत्रिकाओं का था तथा बनारस से निकलने वाला अखबार 'आज' नियमित आया करता था.वह अपना बचपन,अपनी किशोरावस्था थी जहां किताबें ही नहीं कोई भी कागज 'विद्या माई' था और आपस में हमउम्र लड़के कसम खाने की नौबत आने पर अक्सर 'गऊ कीरे' आदि-इत्यादि कसमें खाने के स्थान पर 'बिदिया माई कीरे' यानि विद्या माता की ही कसम खाते थे. न रही हो अपने बचपन के गांव में बिजली की रोशनी और लालटेन-ढ़िबरी की मलगजी रोशनी ही नसीब में रही हो परंतु यह कहने में फ़ख्र होता है कि अपनी आसपास किताबों की दुनिया थी जहां छापाखाने से छपे अक्षर सीधे दिल-दिमाग पर छपते थे अभ्यास पुस्तिका के पन्नों पर नहीं. लेकिन मैं यह सब क्यों पता रहा हूं ? अतीत का उत्खनन करके आखिर क्या कहना चाह रहा हूं ? मैं तो शारदा सिन्हा जी के गाने की बात कर रहा था.

शारदा जी के गीत जब पहली बार सुने थे तब लगा था कि यह तो अपना खलिस-खांटी उच्चारण है,खास अपनी मिट्टी का सोंधापन.भोजपुरी फ़िल्मों के गीतों में भी यह तत्व कम महसूस होता था.उस समय बिरहा के दंगल और लवंडा नाच नुमा गाने भी आसपास बजते थे लेकिन उन्हें सुनना बिगड़ने और आवारा होने का अलिखित प्रमाणपत्र माना जाता था. इसी दौर में शारदा जी ने अपने स्वर से सम्मोहित किया और हिया को सुखद बयार मिली.संगीत के पारखी लोगों के लिए मेरे ये उद्गार बेहद बचकाने व गलदश्रु भावुकता वाले लग सकते हैं किन्तु मैं तो अपने उन दिनों की बाद कर रहा हूं जब भावुकता ही पूंजी थी. आज भोजपुरी संगीत जो गति और गत्त है उस पर फिर कभी..

शारदा जी को आजकल सुनते हुए जी कुछ उदास हो जाता है.हालांकि उनके अधिकतर गीत खुशी और रागात्मकता के है फ़िर भी इस चंचल- पागल मन के हिरणशावक का क्या कीजे? अगर मुझे आजकल शारदा जी के गीतों को सुनते हुए उफ़नाई कोसी और उसके जल की विकरालता बाढ़ के रूप में दीखने लगती है तो मैं क्या करूं ? और हां, यह मैं पूरे होशोहवास में कह रहा हूं कि ऐसा सिर्फ़ सपने में ही नहीं होता...

चलिए,छोड़िए भी अगर आप इस एकालाप को पढ़कर यहां तक पहुंच ही गये हैं तो और आपके कीमती वक्त में से कुछ चुरा लिया गया है तो इस नाचीज को क्षमा करते हुए सुन लेते हैं पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के स्वर मे यह गीत- पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....

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शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

जाओ लड़की ! यह बस तुम्हें पहाड़ पर पहुंचा देगी



सबसे पहले तो इस बात के लिए माफ़ी कि आज सुबह वडाली बंधु के गायन की एक पोस्ट लगाई किन्तु कुछ तकनीकी करणों से उसे तुरंत हटा देना पड़ा. अभी जो कविता प्रस्तुत कर रहा हूं वह काफ़ी पुरानी है तथा अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के २८ जुलाई से ०३ अगस्त १९९१ के अंक में प्रकाशित हुई थी. उस समय (१९८९ - ९० में) अपनी पी-एच.डी. की थीसिस के लिए सामग्री जुटाने सिलसिले में दिल्ली के पुस्तकालयों के खूब चक्कर काटे थे.हर बार यह सोचकर यह जाता था कि महीना भर रहूंगा, पढ़ाई-लिखाई के साथ मौज भी होगी परंतु हर बार हप्ता बीतते-बीतते तन-मन ऐसा उदास, उचाट हो जाता कि 'जैसे उड़ि जहाज को पंछी..' और वापस नैनीताल - पहाड़ों की गोद में जहां सब कुछ छोटा, आसान और सरल होता था. इस छोटेपन में एक तरलता थी जो दिल्ली या उस जैसे अन्य बड़े शहरों में जाकर सूख -सी जाया करती थी. जैसा कि मैंने पहले ही कहा - यह कविता बहुत पुरानी है.इसे दिल्ली में ही वसंत कांटीनेंटल होटल सामने बनी एक सरकारी कालोनी के तिनतल्ले की बालकनी में एक दोस्त के आधी से अधिक गुजर चुकी रात के एकांत में 'अपने पहाड़' को याद करते हुए लिखा था. नैनीताल लौटकर अपने गुरु प्रोफ़ेसर बटरोही जी से इस पर इस्लाह ली और चुपके से सा.हि. के संपादक को भेज दी और वह कुछ महीनों बाद प्रकाशित भी हो गई. ऊपर लगी तस्वीर उसी प्रकाशित कविता की है.
अब जब सब कुछ बदल गया है. कवितायें लिखना अब भी जारी है परंतु छपने-छपाने के सिलसिले में पहले की तरह आलस्य निरंतर बना हुआ है. अब न तो वह दिल्ली है ,न वे पहाड़ हैं न ही अब वह मैं ही हूं ( अब न वो मैं हूं, न तू है न वो माजी है फ़राज) दिल्ली तो कभी अपनी थी ही नही .पहाड़ जरूर अपने थे , आज भी अपने ही हैं -यह अलग बात है कि 'वक्त ने कुछ हंसी सितम ' कर कर दिया है फ़िर भी 'उठ ही जाती है नजर तेरी तरफ़ क्या कीजे'. पता नहीं कविता के साथ इस टिप्पणी की जरूरत थी अथवा नही फिर भी..... तो लीजिए प्रस्तुत है कविता- दिल्ली में खोई हुई लड़की

दिल्ली में खोई हुई लड़की

लड़की शायद खो गई है
'शायद' इसलिए कि
उसे अब भी विश्वास है अपने न खोने का
दिल्ली की असमाप्त सड़कों पर अटकती हुई
वह बुदबुदाती है - 'खोया तो कोई और है !'

आई.एस.बी.टी. पर उतरते ही
उसने कंडक्टर से पूछा था -
'दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
सुना है वह किसी अखबार में काम करता है
तीन साल से चिठ्ठी नहीं लिखी
घर नहीं आया
रात मेरे सो जाने पर
ईजा डाड़ मारकर रोती है
और मेरी नींद खुलते ही चुप हो जाती है
दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
मैं उसे वापस ले जाने आई हूं.'
कंडक्टर हीरा बल्लभ करगेती
ध्यान से देखता है उस लड़की को
जो अभी-अभी 'अल्मोड़ा - दिल्ली' से उतरी है
'बैणी' वह कहता है - 'बहुत बड़ी है दिल्ली
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है
जो तुम्हारा ददा कहीं सिगरेट के सुट्टे मरता हुआ मिल जाय .'
लड़की की आंखों में छलक आई
आत्मीयता, अपनत्व और याचना से डर जाता है करगेती
और बताने लगता है -
'दरियागंज, बहादुरशाह जफ़र मार्ग, कनाट प्लेस, शकरपुर...
वहीं से निकलते हैं सारे अखबार
देखो शायद कहीं मिल जाय तुम्हारा ददा
लेकिन तुम लौट ही जाओ तो ठीक ठैरा
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है .'
लड़की अखबार के दफ़्तरों में दौड़ती है
कहीं नहीं मिलता है उसका भाई, उसका धीरू, उसका धीरज बिष्ट
लेकिन हर जगह - हर तीसरा आदमी
उसे धीरू जैसा ही लगता है
अपने - अपने गांवों से छिटककर
अखबार में उप संपादकी, प्रूफ़रीडरीडिंग या रिपोर्टिंग करता हुआ
लड़की सोचती है - क्यों आते हैं लोग दिल्ली
क्यों नही जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ ?
'जाती तो है दिल्ली पहाड़ की तरफ
जब 'सीजन' आता है
तब लग्जरी बसों , कारों, टैक्सियों में पसर कर
दिल्ली जरूर जाती है नैनीताल - मसूरी - रानीखेत - कौसानी
और वहां की हवा खाने के साथ -साथ
तुम्हें भी खा जाना चाहती है - काफल और स्ट्राबेरी की तरह
देखी होगी तुमने
कैमरा झुलाती, बीयर गटकती, घोड़े की पीठ पर उचकती हुई दिल्ली .'

'दैनिक प्रभात' के जोशी जी
लड़की को बताते हैं दिल्ली का इतिहास, भूगोल और नागरिक शास्त्र
समझाते हैं कि लौट जा
तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली
हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली
फिर भी यहां रहने को अभिशप्त हैं हम
हो सकता है धीरू भी यही अभिशाप...
आगे सुन नहीं पाती है लड़की
चल देती है मंडी हाउस की तरफ भगवानदास रोड पर
सुना है वहीं पर मिलते हैं नाटक करने वाले
धीरू भी तो करता था नाटक में पार्ट
कितने प्यार से दिखाता था कालेज की एलबम -
ओथेलो, बीवियों का मदरसा, तुगलक, पगला घोड़ा, कसाईबाड़ा...

प्रगति मैदान के बस स्टैंड पर
समोसे खाती हुई लड़की
आते - जाते - खड़े लोगों की बातें सुनती है
लेकिन समझ नहीं पाती
लोगों को देखती है लेकिन पहचान नहीं पाती
लड़की लड़कियों को गौर से देखती है -
पीछे से कती हुई स्कर्ट में झांकती टांगें
आजाद हिलती हुई छातियां
बाहर निकल पड़ने को आतुर नितम्ब
शर्म से डूब जान चाहती है लड़की
लेकिन धीरू...ददा, कहां हो तुम !

लड़की सुबह से शाम तक
हर जगह चक्कर काटती है
चिराग दिल्ली से लेकर चांदनी चौक तक
पंजाबी बाग से ओखला - जामिया तक
हर जगह मिल जाते है धीरू जैसे लोग
लेकिन धीरू नहीं मिलता
हर जगह मिल जाते हैं नए लोग
कुछ अच्छे, कुछ आत्मीय
और कुछ सट्ट से चप्पल मार देने लायक
लड़की थक - हारकर पर्स में बचे हुए पैसे गिनती है -
बासठ रुपए साठ पैसे
और चुपचाप आई.एस.बी.टी. आ कर
भवाली डिपो की बस में बैठ जाती है
खिड़की से सिर टिकाते ही
एक बूंद आंसू टपकता है
और बस की दीवार पर एक लकीर बन जाती है
कौन पोंछेगा इस लकीर को -
कोई और लड़की ?
या वर्कशाप का क्लीनर या कि धीरू ??

जाओ लड़की !
यह बस तुम्हें पहाड़ पर पहुंचा देगी
उस पहाड़ पर
जो पर्यटन विभाग के ब्रोशर में में छपे
रंग - बिरंगे, नाचते - गाते पहाड़ से बिल्कुल अलग है
जहां से हर साल, हर रोज
तुम्हारे धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू
दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं
लेकिन तुम्हारी तरह
उन्हें खोजने के लिए कोई नहीं आता कभी
कभी - कभार आती हैं तो गलत पते वाली चिठ्ठियां
आते हैं तो पंत, पांडे,जोशी, बिष्ट, मेहरा
जैसे लोगों के हाथ संदेश
लेकिन उन धीरुओं तक
नहीं पहुंच पाती हैं चिठ्ठियां - नहीं पहुंच पाते हैं संदेश
तुम क्यों आई हो ?
क्यों कर रही हो तुम सबसे अलग तरह की बात ??

सुनो दिल्ली
मैं आभार मानता हूं तुम्हारा
तुमने लड़की को ऐसे लोगों से मिलवाया
जिन्हें लोगों में गिनने हुए शर्म नहीं आती
अच्छा किया कि ऐसे लोगों से नहीं मिलवाया
जो उसे या तो मशीन बना देते या फिर लाश
मेरे लड़की अब भी तुम्हारे कब्जे में है
देखो ! उसे सुरक्षित यमुना पर करा दो
उसकी बस धीरे- धीरे तुम्हारी सड़कों पर रेंग रही है
बस की दीवार पर गिरा
उसकी आंख का एक अकेला आंसू
अभी भी गीला है
पहाड़ की परिचित हवा उसे सोख लेने को व्याकुल है ।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय...


कवि के रूप में सबसे पहले कबीर को जाना. जब स्कूल जाना शुरू किया तो पहली पढ़ाई-लिखाई बस यही थी कि काठ की तख्ती पर खड़िया घोलकर गोल-गोल कुछ लिखो. यह एक ऐसी लिपि थी जिसे या तो हम समझते थे या फ़िर हमारे अध्यापक. इसी गोल-गोल लिपि ने आगे चलकर यह सिखाया कि यह धरती,यह चांद,यह सूरज सब गोल हैं,चूल्हे पर पकने वाली रोटी की तरह. इसी गोल-गोल लिपि ने यह भी सिखाया कि जितना बस चले गोल-मोल न करना, चलना तो सीधी राह पर; भले ही पनघट की डगर बड़ी कठिन व रपटीली क्यों न हो- गोल बनकर बे-पेंदी का लोटा न हो जाना. शुरूआती कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय की ऊंची पढ़ाई तक कबीर का साथ हरदम रहा .कोर्स की किताबें कहती रहीं कि अब तक जिसे 'दोहा' कहते रहे वह 'साखी' है, कबीर के बारे में फ़लां विद्वान ने यह कहा है -वह कहा है, वह कवि पहले हैं कि समाज सुधारक? उनकी भाषा पंचमेल खिचड़ी है कि भोजपुरी? कभी -कभार तो यह भी लगने लगा था कि कबीर ने जितनी सीधी,सच्ची,सरल भाषा-शैली में कविता कही है उतनी ही कठिन शब्दावली और क्लिष्ट संदर्भ-प्रसंगों के साथ उनकी कविताओं की व्याख्या का व्यामोह रचकर आखिरकार 'हम हिन्दी वाले' चाहते क्या है? खैर,जब-जब अपने इर्दगिर्द कुछ टूटता-दरकता रहा,लोभ,लिप्सा और लालच लुब्ध करने की कवायद करते रहे तब-तब कबीर की लुकाठी ही बरजती रही -सावधान करती रही और तमाम पोथी-पतरा,पाठ-कुपाठ से परे 'ढ़ाई आखर' को सर्वोपरि मानने की सीख देती रही.

कबीर को संगीतकारों ने खूब गाया है और आगे भी गाते रहेंगे. कवियों,कलाकारों,गायको का 'बीजक' के रास्ते से बार -बार गुजरना उस बीजमंत्र की तलाश ही तो है जो 'जल में कुंभ,कुंभ में जल' है. जैसे साफ़ पानी में अपना चेहरा साफ़ दीखता है,वैसे ही कबीर की लगभग समूची कविता मुझ पाठक और कविता प्रेमी को साफ़ दीखती है -अपनी उस अर्थछवि के साथ जो इस क्रूर,कठिन,कलुषित काल में जायज है,जरूरी है और जिन्दगी के गीत गाने के पक्ष में खड़ी है. जब कबीर के शब्दों को आबिदा परवीन का स्वर मिल जाय तो क्या कहने ! प्रस्तुत है- 'साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय...




( चित्र : www.punjabilok.com से साभार)

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

नुस्खए- इश्क

वो अजब घड़ी थी कि जिस घड़ी
लिया दर्स नुस्खए- इश्क का,
कि किताब अक्ल की ताक पर

ज्यूं धरी थी वूं ही धरी रही .

( सिराज औरंगाबादी )

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

दीवानगी और दर्शन की चाहत....गायकी के दो अंदाज


( इस आवाज और इसके जादू के बारे में इतना कुछ कहा - सुना - लिखा गया है और अगले वक्तों में इतना कुछ कहा - सुना - लिखा जाएगा कि मेरे लिखे की क्या औकात.मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि सुबह-सुबह जब यह अद्भुत स्वर मेरे भीतर उतर जाता है तब मुझे पूरे दिन भर रोजमर्रा के रंजो-गम से थोड़ी ही सही निजात -सी मिल जाती है,महसूस होता है कि संवेदनाओं की तितलियों के पर अभी पूरी तरह नुचे नहीं हैं और अंतस की जो भी टूटन - फ़ूटन तथा सीवन की उधड़न - उखड़न है उसकी मरम्मत हो रही है ,रफ़ूगरी का करिश्मा अब भी कामयाब हो रहा है.ऐसा अजगुत बहुत सारे लोगों के साथ होता रहा है,होता रहेगा , होना भी चाहिए. अब यह दीगर बात है कि कुछ लोगों की नजर में यह पलायन व पिछड़ापन माना जाता हो, व्यावहारिकता के पैमाने से बाहर और परे. परन्तु ,क्या करें साहब, 'सब कुछ सीखा हमने ना सीखी....' अब मैं अपनी बकबक बन्द करूं. मित्रों ! प्रस्तुत हैं आबिदा परवीन की गायकी के दो अंदाज.आप सुनें और अपने तरीके से आनंदित होवें )


जब से तूने मुझे दीवाना बना रक्खा है.
संग हर शख्स ने हाथों में उठा रक्खा है.

उसके दिल पर भी कड़ी इश्क में गुजरी होगी.
नाम जिसने भी मोहब्बत का सजा रक्खा है.

पत्थरों आज मेरे सर पे बरसते क्यों हो,
मैंने तुमको भी कभी अपना खुदा रक्खा है.

अब मेरी दीद की दुनिया भी तमाशाई है,
तूने क्या मुझको मोहब्बत में बना रक्खा है.

पी जा अय्याम की तल्खी को भी हंस के 'नासिर',
गम को सहने में भी कुदरत ने मजा रक्खा है.
(हकीम नासिर)

१-जब से तूने मुझे.....




२- घूंघट ओले ना लुक सजणां.......



(ऊपर लगा चित्र मेरी बेटी हिमानी ने वाटर कलर से बनाया है .हिमानी जी आठवीं कक्षा की विद्यार्थी हैं,चित्रकारी व फ़ोटोग्राफ़ी का शौक रखती हैं,कुछ कवितायें भी लिखी हैं और हां, उन्हें आबिदा आंटी के गाने अच्छे लगते हैं)


शनिवार, 13 सितंबर 2008

'उत्तरा' के पन्नों पर उगा 'बीज मंत्र'


झील,बादल,बारिश और बर्फ़ के शहर नैनीताल से पिछले अठारह वर्षों से त्रैमासिक 'उत्तरा महिला पत्रिका' निकल रही है और उसका बहत्तरवां अंक ( जुलाई - सितम्बर २००८ ) अभी मेरे सामने है. सीमित संसाधनों और बिना किसी तामझाम के इसका अनवरत प्रकाशन इस बात की आश्वस्ति है कि पढ़ने वालों की कमी नहीं है और ही ऐसे लोगों की ही जो तमाम जद्दोजहद के बावजूद अपना काम बखूबी किए जा रहे है. 'उत्तरा' की टीम ( संपादन: उमाभट्ट,शीला रजवार,कमला पंत,बसंती पाठक, सहयोग: गिर्दा,गीता गैरोला,कमल जोशी,जया पांडे,नीरजा टंडन,दिवा भट्ट,अनीता जोशी,जीवन चंद्र पंत,कमल नेगी,विमला असवाल,मधु जोशी,मुन्नी तिवारी,पुष्पा मेलकानी,रीतू जोशी ) की मेहनत और सामग्री के चयन की सजगता इसके पन्नों पर दिखाई देती है.अगर आप आम महिला पत्रिकाओं में परोसी जाने वाली रेसिपी, रसोई, रिश्तेदारी,रंग-रोगन आदि की उम्मीद यहां करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी, यहां तो स्त्री जीवन का ताप भी है और तत्व भी. साथ ही 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो' के रंज और रुदन से आगे ले जाने वाला गंभीर विमर्श भी अक्सर यहां मौजूद रहता है. अगर आप अभी तक इस पत्रिका से नहीं जुड़े हैं तो कृपया इसका पता नोट कर लें- परिक्रमा,तल्ला डांडा, तलीताल, नैनीताल - २६३००१ (उत्तराखंड) भारत.

'उत्तरा' के नए अंक में प्रकाशित रचनाओं में वैविध्य है. इसमे जहां एक ओर 'असुरक्षित बचपन' वहीं दूसरी ओर इस्मत चुगताई की आत्मकथा 'कागजी है पैरहन' भी. यह टिप्पणी इसलिए नहीं है कि मुझे इस पत्रिका का रिव्यू करना है बल्कि इसलिए कि इस जरूरी पत्रिका के बारे में उन पाठकों को जानकारी देने की मंशा है जिनके लिए छपे हुए शब्दों का मतलब केवल मनोरंजन भर नहीं है. 'उत्तरा' के इसी अंक में प्रज्ञा रावत की एक बेहद छोटी सी कविता छपी है- 'बीज मंत्र'. मुझे लगता है कि 'देखन में छोटी' यह कविता असल में बहुत बेधक और बड़ी बात कह जाती है.

प्रज्ञा रावत की कविता : बीज मंत्र

जितना सताओगे
उतना उठूगी
जितना दबाओगे
उतना उठूंगी
जितना जलाओगे
उतना फ़ैलूंगी
जितना बांधोगे
उतना बहूंगी
जितना बंद करोगे
उतना गाऊंगी
जितना अपमान करोगे
उतनी निडर हो जाऊंगी
जितना प्रेम करोगे
उतनी निखर जाऊंगी !

( चित्र परिचय : 'उत्तरा' के नए अंक का आवरण ,गोपा प्रकाश की पेंटिंग )

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

'रसिया को नार बनाओ री'...........


आज कई दिनों की गैरहाजिरी के बाद फ़िर उपस्थित हुआ हूं. कामकाज, दफ़्तर-फ़ाइल,दाल रोटी का हिसाब-किताब इतना विविध और बिखरा हुआ है कि ब्लाग पर कुछ लिखने और कुछ प्रस्तुत करने की फ़ुरसत कम ही मिल पा रही है.पिछले सप्ताह मैंने 'कर्मनाशा' पर बहुत संकोच के साथ पहली बार संगीत प्रस्तुत करने की हिम्मत जुटाई परन्तु देखता क्या हूं कि इसे संगीत प्रेमियों और पारखियों द्वारा पसंद किया गया.यह निश्चित रूप से मेरे जैसे नौसिखुए और नेपथ्य में रहने वाले इंसान के लिए आह्लादकारी है और आगे की राह बताने वाला भी है. मेरी पोस्ट जिस-जिस को सुकून और आनंद के एक कतरे का हजारवां हिस्सा भी दे पाई हो, मैं उन सभी के प्रति आभारी हूं.

आज एक गीत प्रस्तुत है जो मेरे घर में पिछले कई महीनों से सुबह-सुबह बजता है तथा जिसे सुनकर दिन भर के इनकमिंग और आउटगोइंग काल्स रूपी उठापटक,भागदौड़ को झेलने के लिए अपनी देह और दिमाग की बैटरी चार्ज होती है. यह गीत है - 'रसिया को नार बनाओ री' जिसे कल्पना झोकरकर जी ने गाया है.Rasiya-A Cascade of Love नामक अलबम में संग्रहीत यह रचना कान्हा और राधा के अनुराग की उस रसवंती थाती से हमें जोड़ती है जो जयदेव, विद्यापति,सूरदास,मीरा, रसखान,बिहारी,रत्नाकर,नजीर अकबराबादी, भारतेन्दु, हरिऔध,धर्मवीर भारती और अन्यान्य कवियों, कलाकारों गायकों की प्रतिभा का स्पर्श करती हुई आज हम तक पहुंची है जिसे अगली पीढ़ी तक विनम्रतापूर्वक पहुंचाने का दायित्व हम सबका है.

मामासाहेब कृष्णराव मुजुमदार की प्रतिभावान पुत्री और शिष्या कल्पना जी ग्वालियर घराने की सुरीली परंपरा का एक रत्न लेकर आई हैं जो मुझे बहुत प्रिय है, उम्मीद है सुनने वाले भी निराश न होंगे। अब और लिखत-पढ़त का काम नहीं है. अब तो यही किया जाय कि बस्स सुना जाय- 'रसिया को नार बनाओ री'...........



( परिचय और चित्र कल्पना झोकरकर जी की वेबसाइट http://www.kalpanazokarkar.com से साभार )


शनिवार, 6 सितंबर 2008

वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला दो !


जो बजे वह बाजा
जो सजे वह साज !
पर मैं क्या करूं ?
न अपने पास कोई गुन
न अपनी कोई आवाज ! !

( संभवत: मुझ जैसों के लिए ही गोसाईं जी ने मानस में कहा होगा -
कवित विवेक एक नहिं मोरे,
सत्य कहऊं लिखि कागद कोरे .)

बहुत दिनों से इस उधेड़बुन में था कि 'कर्मनाशा' पर संगीत प्रस्तुत करूं या नहीं क्योंकि मैं इस क्षेत्र का कोई जानकार नहीं हूं और न ही कोई फ़नकार अथवा विधिवत विद्यार्थी ही, लेकिन संगीत भला लगता है तो क्या करूं ? सुन लेता हूं , गुन लेता हूं और कभी- कभार अपने 'कबाड़खाना' पर कुछ प्रस्तुत भी कर देता हूं और जब पता लगता कि कुछ लोगों ने इस नाचीज की प्रस्तुति को पसंद-सा किया तो यह यकीन पुख्ता होता जाता है कि इस भरी दुनिया में इतना भी कहीं खालीपन नहीं है कि आपका कोई समानधर्मा न हो . बस जरूरत उसे पहचानने भर की है.संगीत का यह सिलसिला इस उम्मीद के साथ पेश है कि इससे कुछ सीखने को मिलेगा और लगे हाथ किसी को आनंद के दो पल भी मिल जायें तो अहोभाग्य !

पहली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं अहमद हुसैन - मोहम्मद हुसैन के गायन का एक अलग-सा अंदाज. गजल गायकी में ऊंचा मूकाम हासिल कर चुके हुसैन बंधु ने भक्ति और आराधना की जो एक अद्भुत स्रोतस्विनी बहाई है उसी में 'जिन खोज तिन पाइयां' की कोशिश में मैं हिम्मत बांधकर उतरा तो जरूर किन्तु कहां अजस्र संगीत सरिता और कहां मैं 'बपुरा' सो जो भी समझ में आया वह बहुत आदर और सम्मान के साथ इकठ्ठा कर किनारे आ लगा हूं और अब संगीत के तमाम परखियों के बीच बेहद संकोच के साथ अपनी पुटलिया खोल रहा हूं .आप लोग सुने , समझें , सराहें और संभव हो तो बतायें भी तथा बरजें भी कि उस्तादों की थाती को सहेजने का शऊर - सलीका समझ में आता रहे !

प्रस्तुत हैं जनाब अहमद हुसैन - मोहम्मद हुसैन के स्वर में दो भक्तिपरक रचनायें -


शारदे जय हंस वाहिनी.....



अब राधा रानी दे डारो बंशी मोरी......


गुरुवार, 4 सितंबर 2008

'लिरिकल मोमेंट्स' और खटराग के बीच राग


किताबें कहां से कहां पहुंचा देती हैं. वे एक नया संसार रचती हैं. किताबें एक नई दुनिया के अन्वेषण का सहयात्री बनाकर हमें एक अजाने लोक में ले जाती हैं. इसी अजाने लोक से ही एक जानने - पहचानने और पसंद आने योग्य संसार के निर्माण का क्रम आरंभ होता है. कुछ लोग इसे ,छाया , माया,भुलावा,छलावा और यूटोपिया भी कहते हैं. जयशंकर प्रसाद ने कहा ही है - 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे - धीरे'. स्पष्ट कर दूं कि यहां पर मैं अपने तईं उन किताबों की बात कर रहा हूं जिन्होंने मेरे जीवन में 'लिरिकल मोमेंट्स' रचे हैं. हालांकि जीवन आपाधापी में ये 'लिरिकल मोमेंट्स' असहजता और असुविधा का उद्गम -स्थल बनते हैं किन्तु तमाम खटराग बीच इन्हीं के कारण कुछ रागात्मकता बची रहती है. यह कोई तात्कालिक 'लाभ' भले ही न दे पाती हों फ़िर भी बाहर के असंख्य और अनवरत दबाओं - दुष्चक्रों के बावजूद , मैं ऐसा मानता हूं कि इनके कारण ही भीतर कुछ 'शुभ' बचा रह पाता है. अब यह अलग और वैयक्तिक प्रश्न है कि यह 'शुभ' कितना लाभकर है !

एक जमाने में धर्मवीर भारती की कविता की किताब 'कनुप्रिया' का असर मेरे ऊपर जबरदस्त रहा है. हालांकि उनकी 'अंधायुग' और 'प्रमथ्यु गाथा' ने भी खूब बनाया बिगाड़ा है. मैंने अपनी पहली कविता तब लिखी थी जब आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था और विश्वविद्यालय तक आते -आते एक कवि के रूप में जाना जाने लगा था लेकिन जब 'कनुप्रिया' से साक्षात्कार हुआ तो लगा था कि अब तक जो भी लिखा था वह तो कलम घिसाई भर थी, ऊपर से पहाड़, झील ,बादल और बर्फ़ वाला शहर. भीतर ही भीतर कहीं कुछ बनता, बिगड़ता और बदलता हुआ -सा. तब कनुप्रिया से प्रेरित होकर सात कवितायें लिखी थीं जो अब पुराने संदूक से निकली पुरानी डायरी के पन्नों पर उतराकर मुझे पुन: वहीं पहुंचाने की जुगत भिड़ाने में लग गई हैं जहां से बहुत निर्मम, निठुर, क्रूर और कुटिल होने का अभिनय करते हुए आज, वर्तमान के पटल पर अपने को पा रहा हूं. ये कवितायें अगर कवितायें है तो इनमें मैं हूं, मेरा अतीत है , मेरी आस्था -आकांक्षायें हैं और वह सब कुछ है जो 'शुभ' और 'लाभ' के बीच व्याप्त लालच पर लगाम कसे रहता है. यदि इनमें किसी की रुचि हो सकती है , कोई 'समानधर्मा' इनमें जरा -सा भी अपना अक्स देख पाता है तो मैं ऐसे 'हमनफ़स और हमनवा' को सलाम करता हूं. तो लीजिए प्रस्तुत हैं ऊपर उल्लिखित सात कविताओं में से चार कवितायें -

१ / प्रथम दर्शन

उस दिन ....
शाम को घर लौटते समय
मन बरबस ही
एक जंगली फ़ूल पर आ गया था
और उसे तोड़ने की धुन में
मैंने अपनी उंगलियां लहूलुहान कर डाली थीं.
तुम न जाने कहां से
एकाएक प्रकट होकर
मेरे इस पागलपन पर हंसने लगीं
निश्छल हंसी जैसे शाम के चंपई माथे पर
पुतने सी लगी
परत दर परत..

संकोचवश
मैं तुम्हारा नाम भी तो न पूछ सका था
कि तुम हो कौन?
क्या हो??
मानवी जादू???
या कि कोई मायावी छलना????
***
२ / प्रथम परिचय

बे-वजह ही
वंशी टेर दी थी मैंने
यमुना तट की नीरवता
और दोपहर के सघन एकांत में.
थोड़ी ही देर बाद
तुम दौड़ती हुई मेरे पास आई थीं
और मेरे समीप ठिठककर पूछा था-
'सुनो कहीं तुम कान्हा तो नहीं?'
मैं चुप
एकटक
तुम्हारे नैकट्य की गंध को महसूस करता रहा
संभवत: स्वयं से भी तटस्थ होकर.

फ़िर..
अनगिनत गूंगे क्षणों के उपरान्त
तुमने मेरी मुरली अपने हाथों में लेकर
अधरों से छुआ था
और सकुचाकर वापस करते हुए कहा था-
'मेरा नाम राधिका है.'
***
३ / प्रथम मोहभंग

सोचा था -
चलते समय तुम रोक लोगी
और आंचल फ़ैलाकर रुक जाने की भीख मांगोगी.
( पुरुष हूं न !
ऐसा ही सोचा था मैंने
मुझे बताया गया है
ऐसा ही सोचते हैं पुरुष )
लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ
तुम सूनी आंखों से मुझे देखती रहीं
निर्निमेष...

काश राधिके !
तुमने विदा के दो शब्द ही कह दिए होते !
खैर, चलो अच्छा ही हुआ
ऐसा करना कितना औपचारिक होता
हम किसी नाट्यमंचन के पात्र नहीं
अपनी स्वाभाविक जिंदगियों को जी रहे थे उस पल...

आज बस वही दृष्य
कचोट रहा है मन को
संतोष बस इतना भर है कि उस मन में
तुम हो , तुम हो, तुम हो !

***
४ / प्रथम पीड़ा

मैं तुम्हें रोज एक पत्र लिखता हूं
और लिखकर
जल में सिरा देता हूं...
ऐसा क्यों ?
इसका उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है.
हम खामोशी में जिये जाते संबंधों का जहर
आखिरकार कब तक पीते रहेंगे ?
तुम्हें क्या पता कि
पिछले कुछ वर्षों में
मैंने अपने जीवन का
सबसे अच्छा हिस्सा जी लिया है
इस पहाड़ी शहर से मैंने एक नया आकार लिया है
और
तुम्हारी स्मृति
मेरे अस्तित्व का एक अविभाज्य अंग बन गई है.

आह !
मैंने तुम्हें राधिका कहा है
यह छोटा -सा संबोधन
तुम तक कभी नहीं, कभी नहीं पहुंच सकेगा.
यह मेरा प्राप्य है
यह भी कुछ कम तो नहीं !!