सोमवार, 7 अप्रैल 2008

'फसल'-अन्न का आख्यान और बाबा का 'सोनिया समंदर'

फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!
(नागार्जुन की कविता 'फसल' का एक अंश)

पिछले दो-तीन बारिश हुई.तेज हवायें चलीं.सुना-पढ़ा कछ जगह हल्के ओले भी गिरे.अप्रेल का महीना.होली के बाद सर्दी सरक गई थी और गर्मी ने अपनी आमद दर्ज करानी शुरू कर दी थी,तभी यह बारिश!बे मौसम बरसात!गरम कपड़े एक बार फिर निकल आए.रजाई कंबल फिर भाए.कुछ लोगों को कहते सुना-शिमला,नैनीताल का मौसम हो रहा है;आनंद लो,मौज करो.किसानों के चेहरे उतरे हुए,मौसम की मार का असर-पकी फसल पर बारिश का कहर.कुछ लोगों को कहते सुना-गेहूं का भाव तो काफी ऊपर जायेगा,मंहगाई ने वसे ही कमर तोड़ रक्खी है.आम आदमी कैसे रोटी खायेगा?

मैंने कुछ नहीं कहा.लोगों की बातें सुनता रहा,मन ही मन कुछ उधेड़ता,बुनता रहा.बचपन गांव में बीता है.छोटी जोत के किसान पिता को प्रकृति के परिवर्तित तेवर से प्रसन्न और परेशान होते देखा है.अब भी गांव में ही रहता हूं.मेरे घर के चारों ओर खेत ही खेत हैं,गेहूं की पकी फसल से भरे- भरपूर,अपने भीतर क्षुधा और स्वाद समेटे.जहां तक दृष्टि जाती है वहां तक अन्न का अपरिमित आख्यान उत्कीर्ण दिखाई देता है..कुछ लोगों ने कहा- तुम तो कवि हो,कितना सुहाना मौसम है,कविता लिखो.अब क्या कहूं ऐसे उत्साही काव्य रसिकों को? देश-दुनिया की दूसरी भाषाओं के बारे में तो नहीं जानता लेकिन हिन्दी में यह जरूर लगता है कि 'ऐसे' ही उत्साही काव्य रसिकों,कविता प्रेमियों और सहृदयों ने कवियों की एक बड़ी फौज को तैयार करने के काम का बीड़ा उठा रखा है साथ ही लगे हाथ तारीफ की तत्परता में भी कोई कोर-कसर नहीं. यह कहते हुए क्षमा चाहूंगा कि हिन्दी ब्लाग की दुनिया को मैं जितना भी देख पाया हूं उसका एक बड़ा भाग 'ऐसे' ही सर्जकों और सहृदयों से संकुलित है.

खैर,सुहाने मौसम और सहृदयों के सुझावों से मेरे भीतर का कवि नहीं जागा और मैं ताल-तलैया,झील,पोखर ,नदी,झरने,जंगल की ओर कागज कलम लेकर नहीं भागा.शायद एक 'महान'कविता बनने से रह गई.मैं खुश हूं कि एक दुर्घटना टल गई.लेकिन कई-कई कवियों की कई-कई कवितायें याद आईं,प्रकृति के सुकुमार कवियों की कवितायें भी और प्रकृति से प्रतिरोध की प्रेरणा प्राप्त करने वाले कवियों की कवितायें भी.इस सिलसिले में अपने बाबा(वैद्यनाथ मिश्र/ यात्री/ नागार्जुन)की कई कवितायें याद आईं.उन्होंने प्रकृति पर नहीं ,प्रकृति के साथ मिलकर खूब-खूब लिखा है.'अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल' तो है ही,'बरफ पड़ी है','मेघ बजे','घन कुरंग','फूले कदंब','बहुत दिनों के बाद','मेरी भी आभा है इसमें','फसल''सिके हुए दो भुट्टे','डियर तोताराम','बादल भिगो गए रातोरात' आदि-इत्यादि.बादल,बारिश और पकी फसल से उपजी चर्चा के बीच राजकमल पेपरबैक्स से प्रकाशित 'प्रतिनिधि कवितायें' (सं० नामवर सिंह) से साभार प्रस्तुत है बाबा की एक कविता 'सोनिया समंदर'-


सोनिया समंदर /नागार्जुन

सोनिया समंदर
सामने
लहराता है
जहां तक नजर जाती है

बिछा है मैदान में
सोना ही सोना
सोना ही सोना
सोना ही सोना

गेहूं की पकी फसलें तैयार हैं
बुला रही हैं
खेतिहरों को
..."ले चलो हमें
खलिहान में-
घर की लक्ष्मी के
हवाले करो
ले चलो यहां से"

बुला रही हैं
गेहूं की तैयार फसलें
अपने-अपने कृषकों को...

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

ऐसे लोगों की बातें बिल्कुल न सुनिए - पुराना सोना लुटाएंगे, तभी नए देख पाएंगे - QED तत्पर तारीफ के साथ - [ :-)]